आज की सभ्यता पिछली सभी सभ्यताओं
से विकसित है और लगातर आगे बढती जा रही है,विकास के इस दौर में सबसे बड़ी जो बात
आती है वो है समान अधिकार की ,चाहे छोटा बड़ा हो या पुरुष-महिला हो,सभी को सामान
अधिकार प्राप्त हैं और इसके लिए विश्व मे कही संगठन कार्यरत हैं,इसमें कोई दो राय नहीं कि ये समाज
पुरुष प्रधान रहा है,और वो कबसे रहा है इसका ज्ञान मुझे नहीं है क्योंकि भारत माता
, दुर्गा,सरस्वती माता माँ और वेद ग्रन्थों में सभी की महिमा वर्णित हैं, परम
विदुषी अपाला का भी मुझे स्मरण है इसका अर्थ है कि धर्म के आधार पर तो समाज पुरुष
प्रधान नहीं रहा है,और इतिहास में रानी लक्ष्मीबाई,सरोजिनी नायडू.सावित्रीबाई
फुले,उत्तराखण्ड में तीलू रौंतेली,रामी बौराणी,गौर देवी का भी मुझे है ज्ञान है जिन्होंने
अपना नाम इतिहास में दर्ज किया है।
वक्त के साथ समाज में अनेक
कुरीतिया आईं,क्योंकि हर किसी ने अपना प्रभुत्व स्थापित करने के लिए प्रयास किये और
समाज एक गलत दिशा कि ओर ले जाया गया आज वक़्त के साथ बदलाव होता जा है है, महिला सशक्तिकरण पर कार्य किया जा रहा है,जिसके
फलस्वरूप आज महिला हर छेत्र में अपना कीर्तिमान स्थापित कर रही हैं।
विकास से इस दौर में महिला
और पुरुष को अलग अलग आंकना बिलकुल ही गलत होगा क्योंकि विश्व का ऐसा कोई क्षेत्र नहीं जहां महिलाएं पुरुषों से पीछे हैं हालाँकि कही पिछड़े छेत्रों में अभी भी
सशक्तिकरण की अत्यंत आवश्यकता है,कही परिवारों को अपनी सोच का दायरा बढाने की
जरूरत है और मैं मानता हूँ कि कुछ वक्त
में शिक्षित समाज के साथ ये कुरीतियाँ भी समाप्त हो जाएँगी
आज अक्सर ये वाद विवाद का
विषय होता है कि जो कार्य पुरुष कर सकते हैं वो स्त्रियाँ क्यों नहीं?
प्रश्न बिल्कुल जायज है किन्तु
उन कार्यों में जो पुरुष की प्रधानता नहीं दिखाता क्या उन छेत्रों में ये तुलना
करना उचित होगा ? उदाहरण के तौर पर एक पुरुष धूम्रपान या शराब का उपभोग करता है तो
क्या महिला नहीं कर सकती? आपको ये प्रश्न उचित भी लग सकता है क्योंकि आज टीवी,वेब
सीरीज आदि में ये परोस कर दिखाया जाता है
और हम समझने लगते हैं कि ये महिला सशक्तिकरण है,अगर कोई रोके टोके तो कहा जाता है
कि ये एक पुराने जमाने की बातें हैं,रूढ़िवादी हैं,पर क्या सारी पुराने ज़माने की बातें
गलत हैं या हम अपनी गलतियों को विकास के नाम पर छुपा देते हैं ।
क्या ये सत्य है ? मैं इस
विचारधारा का खंडन करता हूँ क्योंकि मुझे लगता है कि इन सभी चीजों में पुरुष या
स्त्री की बराबरी करना वैसे ही है जैसे ये कहना कि अगर ये नदी में कूद मार सकता है
तो मैं क्यों नहीं,किसी शुगर के व्यक्ति का ये सोचना कि एक आम व्यक्ति मीठा खा सकता
है तो मैं क्यों नही,क्या डॉक्टर यहाँ भेदभाव कर रहा है ? आप खुद ये बात सोच सकते
हैं,शराब या अन्य व्यसन किसी के लिए भी लाभदायक नहीं हैं तो ये तुलना का विषय कैसे
हो सकता है ? ये कहना सही होगा कि अपने नीजी तौर पर कोई ये सब करे तो हम उसे नहीं
रोक सकते,ये उसका हक है पर उसको एक विचारधारा बनाकर सब पर थोपना भी सरासर गलत ही है ,पर
क्या ये हमारी जिम्मेदारी नहीं बन जाती कि हम समाज को एक सही रास्ता दिखाएँ।
बुद्धिजीवी वर्ग
मुझसे प्रश्न करेगा कि आप कौन होते हैं जो ये तय करें कि समाज के लिए क्या अच्चा
है या क्या बुरा ? बात तो सही है पर वो भी
चीजें जिनसे आपका भविष्य अंधकारमय हो जाए वो आपके लिए और समाज के लिए आपके
शरीर के लिए सही नहीं है।आज अंग्रेजी शब्द फेमेनिश्म हर जगह सुनाइ देता है,
में इस पर टिप्पणी इसलिए नहीं करूंगा कि आखिर मैं कौन होता हूँ जो ये तय करूं कि
ये है क्या ! ये तो आपको तय करना है,पर समाज के उस वर्ग में इस शब्द का प्रयोग
करना जहां पुरुष और महिला का कोई भेदभाव नहीं है और सभी को बताना भी गलत है,किसी
का कोई गुनाह करना या गलत कृत्य में शामिल होना और ये कहना कि ये पुरुष ने किया या
महिला नें ये भी समाज में उसी विचारधारा का विरोध करता है,क्योंकि गुनाह करने वाला
तो गुनाहगार होता है ,महिला या पुरुष नहीं,अक्सर इन शब्दों का गलत प्रयोग कर आने
वाली पीढ़ी को बहकाया जाता है ,नशे में ये कहकर फंसाया जाता है कि दुनिया चाँद पर
पहुच गयी है और तुम यहीं हो आप अपने देश की इन मामलों में विश्व के अनेक देशो से
कैसे तुलना कर सकते हैं,आप उस देश में रहते
हैं जिसने विश्व को सच्चाई और प्रेम के मार्ग पर चलना सिखाया,जिसकी संस्कृति और
सभ्यता सबसे पुरानी है, जिसने ग्रहों और नक्षत्रों का ज्ञान विश्व को तब दिया जब
इसकी कल्पना भी नहीं कि जा सकती थी।
अब बात करते हैं एक दुसरे पहलू
की
आज के वक़्त में ये कहना कि
आपका साथी आपके लिए खाना बनाएगा वो अगर स्त्री है तो यहाँ पर भी गतिरोध उत्पन्न हो
जाता है क्योंकि हम कहते हैं कि यहाँ भेदभाव हो रहा है,हम सभी टीवी ,वेब सीरीज पर
तो सशक्तिकरण देखते ही आये हैं,पर अगर हम भूल जाएँ कि स्त्री और पुरुष में कोई भेद
है तो क्या ये सवाल जायज है ?यदि दोनों काम करते हैं तो दोनों ही काम को बाँट सकते
हैं पर असली परेशानी का सबब है काम बांटना,क्या एक औरत ही रोटी बनाएगी ? पुरुष
क्यों नहीं क्योंकि रोटी तो कोई भी बना सकता है। जो अच्चा बनाता है वो बना सकता है,जो
काम नहीं कर रहा घर पर है वो बना सकताहै। इसमें पुरुष स्त्री करना इतना जायज नहीं ,जरूरी
है समझदारी,अगर आप लिस्ट बना दें कि ये काम स्त्री करेगी ये पुरुष और किसी कारणवश
एक साथी एक काम न कर पाए ,आप सोच रहें होंगें
कि इतनी छोटी सी बात अक्सर लोगों को कोर्ट के चक्कर लगाने पर मजबूर कर देती है,आप
कोई रोबोट नहीं हैं आपके अंदर भावनाएं हैं,आपको सही गलत की परख है,एक छोटी सी बात
पर आप अगर कोई बड़ा कदम उठाते हैं तो वो क़ानूनी द्रष्टि से सही हो सकता है पर जीवन
कि द्रष्टि से नहीं।आज सभी ऑफिस में कार्यभार बहुत ज्यादा होता है,कही बार हम परेशान
हो जाते हैं,कही बार वजह कुछ और हो सकती हैं।जिन्हें व्यक्त करना कठिन हो सकता है
और ऐसे में साथी से अनबन हो जाती है और फैक्ट्स पर चलने वाले लोगों को कोर्ट पहुंचा
देती है,दूरियां इतनी बढ़ जाती हैं कि हम एक दुसरे की अच्छाईयां नहीं देख पाते और छोटी-छोटी
बातें नोट करना शुरू कर देते हैं जिनके बारे में कभी हमने सोचा ही नहीं, हम उन
लोगो से परामर्श लेना शुरू कर् देते हैं
जिन्हें हमारे जीवन के बारे में कुछ भी पता नहीं,और आलम ये होता है कि फैक्ट्स के
नाम पर एक हसता खेलता परिवार बिखर जाता है।कोई
भी दो इन्सान एक जैसे नहीं हो सकते,दोनों में हजारों अंतर हो सकते हैं,कमियां हो
सकती हैं,और इन्हीं कमियों को साथ लेकर चलना जिंदगी निभाना है,बशर्ते आप सच बोलें,
दूसरे को माफ़ करने कि छमता रखें,और ये सोचना बंद करें कि आपको जिंदगी में ५०-५० का
सहयोग देना है । आपको जरूरत है कि अगर कोई अपने जिंदगी के नीचले स्तर पर है तो आप
उसी उस वक्त पूरा करें चाहे वो २०-८० का अनुपात क्यों न हो ।क्योंकि दो दिन की जिंदगी है और इसे हसने खेलने में गुजारें,बोलने का
मतलब ये नहीं कि आप घरेलू हिंसां को झेलें,इसका जरूर विरोध करें,अपमान न सहें पर
अपनी जिंदगी अपने हिसाब से जिएं किसी और के नहीं।
शुभम चमोला
Worthwhile!....👌....
ReplyDeleteKeep up the good work!!..🙂
Very thinkable post..... Grt 👌👌
ReplyDeleteThanks 😊
DeleteRight point raised ...👍👍👍🙂
ReplyDeleteThanks☺️
Delete