सर्दियां शुरू हो गयी हैं , और कोहरा सा भी लगने लगा है, और कुछ ऐसा ही आलम कुछ वर्षों पहले था,
जैसे ही कार के अंदर गए तो कहने लगे जल्दी से हीटर चालू करो,कितनी ज्यादा ठंड है आज, फिर पीछे बैठे एक दोस्त ने कहा अरे आज तो चाय के साथ पकौड़े खाने का मौसम है, फिर क्या था निकल लिए हम घर की तरफ,रास्ते में कुछ बेसन और दूध लिया, दुकान के ठीक सामने एक कूड़ादान हुआ करता था ,अब शायद वहाँ नहीं है,कुछ बच्चे वहाँ कूड़े के ढेर में बड़े -बड़े(अपने कद से दोगुने कद के) थैले लेकर खड़े थे,बात ये थी कि जिस ठंड से हमारी हालात खराब हो रही थी , उस ठण्ड से उनको जैसे फर्क ही नहीं पड़ रहा था,न पैरों में कोई चप्पल, ना कोई स्वेटर,जैसे सर्दियां तो उनके लिए आयी ही न हो,कुछ देर तक मैं एकटक उनको देखता रहा ,फिर सामने खड़ा दोस्त ने आवाज लगाई और मैं अपनी सोच से बाहर आया,घर जाकर पकौड़े तो बने पर उनमे स्वाद नहीं था, जैसे नीरस से लग रहे थे , उसका कुछ रस शब्दों में बयान करने की कोशिश की थी, शायद कुछ हद तक कर भी पाया हालांकि व्याकरण की दृष्टि से त्रुटियां बहुत हैं पर उससे ज्यादा एहसासों का समावेश है, आज फिर ऐसा ही दिन आया तो यादें ताजा हो गयी ।
गरीबी की मार बोलूँ या परिवार की आस
ना जाने क्यों निकल पड़ते हैं वो
उस कड़कड़ाती ठंड मैं कूड़ेदानों के पास ।
मुख पर वो भोलापन और कंधों पर वो थैला
न तन पर कोई कपड़ा ,न पैरों में कोई जूता
क्या कहूँ इसे मैं किस्मत की मार या
देश में लटकती गरीबी की तलवार ।
दिन भर भूखे पेट, खोजकर उस कूड़े में कुछ सामान
रात को नसीब हो एक रोटी बस दिल का यही अरमान।
न आस किसी खिलौने की ,न ही पढने का कोई ज्ञान
न जाने कब ख़त्म होगा गरीबी का ये शमशान ।
अवश्य दुःख होता होगा उन्हें भी ,स्कूल जाते उन बच्चों को देखकर
पूछते होंगे वो भी खुदा से क्या गलती थी हमारी इस धरा पर जन्म लेकर !
आँख भर आई वो दृश्य देख
जब वो बच्चे थे उस तवे से रोटी उतरने के इंतजार में
रोटी मिलते ही जो ख़ुशी देखने को मिली उनकी नन्हीं आँखों मे
शायद नसीब न होती हो वो ख़ुशी पाँच सितारा होटल में खाने में ।
उस वक्त एहसास हुआ मुझे क्या दुःख ,क्या दर्द
क्या है ये जिन्दगी !
वक्त बदलता गया पर न बदली उनकी किस्मत ,
आज भी कूड़ा बीन रहे हैं वो बदकिस्मत ।
ना जाने क्यों निकल पड़ते हैं वो
उस कड़कड़ाती ठंड मैं कूड़ेदानों के पास ।
मुख पर वो भोलापन और कंधों पर वो थैला
न तन पर कोई कपड़ा ,न पैरों में कोई जूता
क्या कहूँ इसे मैं किस्मत की मार या
देश में लटकती गरीबी की तलवार ।
दिन भर भूखे पेट, खोजकर उस कूड़े में कुछ सामान
रात को नसीब हो एक रोटी बस दिल का यही अरमान।
न आस किसी खिलौने की ,न ही पढने का कोई ज्ञान
न जाने कब ख़त्म होगा गरीबी का ये शमशान ।
अवश्य दुःख होता होगा उन्हें भी ,स्कूल जाते उन बच्चों को देखकर
पूछते होंगे वो भी खुदा से क्या गलती थी हमारी इस धरा पर जन्म लेकर !
आँख भर आई वो दृश्य देख
जब वो बच्चे थे उस तवे से रोटी उतरने के इंतजार में
रोटी मिलते ही जो ख़ुशी देखने को मिली उनकी नन्हीं आँखों मे
शायद नसीब न होती हो वो ख़ुशी पाँच सितारा होटल में खाने में ।
उस वक्त एहसास हुआ मुझे क्या दुःख ,क्या दर्द
क्या है ये जिन्दगी !
वक्त बदलता गया पर न बदली उनकी किस्मत ,
आज भी कूड़ा बीन रहे हैं वो बदकिस्मत ।
शुभम चमोला
schamola50@gmail.com
schamola50@gmail.com

Wow!!!
ReplyDeleteThank you :)
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