एक डर है।

अक्सर जब भी कुछ पुराने दोस्तों से बात होती है
इस बात से अक्सर हमें घेर लिया जाता है कि कोई मिली नहीं क्या !
आखिर बात क्या है ?
बात ये है कि एक डर है
डर है इश्क़ मुक्कमल न होने का।
डर है किसी के बीच राह में छोड़ जाने का
डर है किसी रूठे को न मना पाने का
डर है उसके दुनिया से घुल मिल जाने का
डर है उसका वक्त के साथ बदल जाने का
डर है शीशे के टूट कर बिखर जाने का
डर है बिखरे टूकड़ों को समेटने में वक्त निकल जाने का


पर किसने देखा इश्क़ को मुकम्मल होते हुए,
मैंने तो नहीं
शायद किसी शायर ने भी नहीं
क्या पता हुए भी हों पर गिने चुने।
अब आप सोच रहे होंगे कि एक तो निराशावादी ऊपर से रूढ़िवादी
हाँ अब तक दिल को समझा नहीं पाए हैं कि इसका काम तो रक्तसंचार है
न वक्त के साथ बदलना मंजूर है
जिस्म से इतनी दिलचस्पी नहीं
रूह से कुछ लगाव हो तो बात है।

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